नमामीशमीशान निर्वाणरूपं विभुं व्यापकं ब्रम्हावेदाम्स्वरुपम |
निजं निर्गुणं निर्विकल्पं निरीहं चिदाकाशमाकाशवासं भजेऽहं || १ ||
निराकारमोंकारमूलं तुरीयं गिरा ग्यान गोतीतमीशं गिरीशं |
करालं महाकाल कालं कृपालं गुणागार संसारपारं नतोऽहं || २ ||
तुषाराद्रि संकाश गौरं गम्भीरं मनोभूत कोटिप्रभा श्रीशरीरं |
स्फुरन्मौलि कल्लोलिनी चारु गंगा लसद्भालबालेन्दु कंठे भुजंगा || ३ ||
चलत्कुंडलं भ्रू सुनेत्रं विशालं प्रसन्नाननं नीलकंठं दयालम् |
मृगाधीशचर्माम्बरं मुण्डमालं प्रियं शंकरं सर्वनाथं भजामि || ४ ||
प्रचंड प्रकृष्टं प्रगल्भं परेशं अखंडं अजं भानुकोटिप्रकाशम् |
त्रय:शूल निर्मूलनं शूलपाणि भजेऽहं भवानीपतिं भावगम्यं || ५ ||
कलातीत कल्याण कल्पान्तकारी सदा सज्जनान्ददाता पुरारी |
चिदानंद संदोह मोहापहारी प्रसीद प्रसीद प्रभो मन्मथारी || ६ ||
न यावद उमानाथ पादारविन्दं भजंतीह लोके परे वा नराणां |
न तावत्सुखं शान्ति सन्तापनाशं प्रसीद प्रभो सर्वभूताधिवासम् || ७ ||
न जानामि योगं जपं नैव पूजां नतोऽहं सदा सर्वदा शम्भु तुभ्य |
जरा जन्म दु:खौघ तातप्यमानं | प्रभो पाहि आपन्नमामीश शम्भो || ८ ||
श्लोक - रुद्राष्टकमिदं प्रोक्तं विप्रेण हरतोषये |
ये पठंति नरा भक्त्या तेषां शम्भुः प्रसीदति ||
Friday, February 12, 2010
Friday, January 29, 2010
कुछ इश्क था कुछ मजबूरी थी,
कुछ इश्क था कुछ मजबूरी थी, सो मैने जीवन वार दिया,
मैं कैसा ज़िन्दा आदमी था इक शख्स ने मुझको मार दिया.
इक सब्ज़ शाख गुलाब की था इक दुनिया अपने ख्वाब की था,
वो एक बहार जो आयी नहीं उसके लिये सब कुछ हार दिया.
ये सजा सजाया घर साथी मेरी जात नही मेरा हाल नही,
ऐ काश कभी तुम जान सको जो इस सुख ने आज़ार दिया.
मैं खुली हुई इक सच्चाई मुझे जानने वाले जानते हैं,
मैने किन लोगों से नफरत की मैने किन लोगों से प्यार किया.
वो इश्क बहुत मुश्किल था मगर आसान ना था यूँ जीना भी,
उस इश्क ने जिन्दा रहने का मुझे ज़र्फ दिया पिन्दार दिया.
मैं रोता हूँ और आसमान से तारे टूटते देखता हूँ,
उन लोगों पर जिन लोगों ने मेरे लोगों को आजार दिया.
मेरे बच्चों को अल्लाह रखे इन ताज़ा हवा के झोंको ने,
मैं खुश्क पेड़ खिजां का था मुझे कैसा बर्ग-ओ-बार दिया.
- उबेदुल्लाह आलीम
मैं कैसा ज़िन्दा आदमी था इक शख्स ने मुझको मार दिया.
इक सब्ज़ शाख गुलाब की था इक दुनिया अपने ख्वाब की था,
वो एक बहार जो आयी नहीं उसके लिये सब कुछ हार दिया.
ये सजा सजाया घर साथी मेरी जात नही मेरा हाल नही,
ऐ काश कभी तुम जान सको जो इस सुख ने आज़ार दिया.
मैं खुली हुई इक सच्चाई मुझे जानने वाले जानते हैं,
मैने किन लोगों से नफरत की मैने किन लोगों से प्यार किया.
वो इश्क बहुत मुश्किल था मगर आसान ना था यूँ जीना भी,
उस इश्क ने जिन्दा रहने का मुझे ज़र्फ दिया पिन्दार दिया.
मैं रोता हूँ और आसमान से तारे टूटते देखता हूँ,
उन लोगों पर जिन लोगों ने मेरे लोगों को आजार दिया.
मेरे बच्चों को अल्लाह रखे इन ताज़ा हवा के झोंको ने,
मैं खुश्क पेड़ खिजां का था मुझे कैसा बर्ग-ओ-बार दिया.
- उबेदुल्लाह आलीम
हम बतलायें क्या ..?
ज़ोर से बाज़ आये पर बाज़ आयें क्या,
कहते हैं हम तुमको मुंह दिखलायें क्या.
रात दिन गर्दिश मैं हैं सातों आस्मां,
हो रहेगा कुछ ना कुछ घबरायें क्या.
पूछ्ते हैं वो के गालिब कौन है,
कोई बतलाओ के हम बतलायें क्या.
- मिर्ज़ा ग़ालिब
कहते हैं हम तुमको मुंह दिखलायें क्या.
रात दिन गर्दिश मैं हैं सातों आस्मां,
हो रहेगा कुछ ना कुछ घबरायें क्या.
पूछ्ते हैं वो के गालिब कौन है,
कोई बतलाओ के हम बतलायें क्या.
- मिर्ज़ा ग़ालिब
Sunday, June 21, 2009
हाँ भिया अपन तो इन्दौरी हैं!
हाँ भिया अपन तो इन्दौरी हैं!
सुबह का अखबार चाय की चुस्कियों के साथ,
नाश्ते में चलते हैं पोहे जलेबी के साथ!
हाँ भिया अपन तो इन्दौरी हैं!
चाहे हो exam की चिंता या फिर हो result की ख़ुशी,
चाहे घर आई हो चमचमाती कार या फिर आँगन मैं हो नयी बाइक की बहार,
सारी खुशियों का एक ही ठिकाना, हाँ वही अपना खजराना,
हाँ भिया अपन तो इन्दौरी हैं!
स्वाद की तो बस पूछिए ही मत बात,
हो सराफे की चाट, या ५६ का हॉट-डॉग, घमंडी लस्सी हो या गुरूद्वारे वाली पानीपूरी,
क्यों आ गया ना मुंह में पानी, यही तो इंदौर की बात है जानी,
घूमने जाना हो तो मेट्रो-टैक्सी है, ज़्यादा गर्मी है तो मोनिका-गेलेक्सी है,
दाल-बाफले का जायका दिल खुश कर देगा, सर्दियों में गराडू बस यहीं मिलेगा,
हर खाने की लज्ज़त हो जाती है दूनी, जब मिले उसमें इन्दौरी सेंव-चटनी,
दिल से देते हैं प्यार की दावतें, इसलिए हमेशा शान से हम है कहते,
हाँ भिया अपन तो इन्दौरी हैं!
लालबाग यहाँ की पहचान है, राजबाड़ा इंदौर की जान है,
विजय-बल्ला अभिमान है, कांच मंदिर इंदौर की शान है,
गांधी हाल की घडी अगर पुराना समय दिखाती है,
टी.आई. की चमक शहर की तरक्की छलकाती है,
अहिल्या की नगरी है, म.प्र. का गौरव, रहेगा हमें हर पल इस पर गर्व,
हाँ भिया अपन तो इन्दौरी हैं!
(अज्ञात इन्दौरी की रचना, दिनेश भिया - जानकी नगर वालों ने भेजी)
सुबह का अखबार चाय की चुस्कियों के साथ,
नाश्ते में चलते हैं पोहे जलेबी के साथ!
हाँ भिया अपन तो इन्दौरी हैं!
चाहे हो exam की चिंता या फिर हो result की ख़ुशी,
चाहे घर आई हो चमचमाती कार या फिर आँगन मैं हो नयी बाइक की बहार,
सारी खुशियों का एक ही ठिकाना, हाँ वही अपना खजराना,
हाँ भिया अपन तो इन्दौरी हैं!
स्वाद की तो बस पूछिए ही मत बात,
हो सराफे की चाट, या ५६ का हॉट-डॉग, घमंडी लस्सी हो या गुरूद्वारे वाली पानीपूरी,
क्यों आ गया ना मुंह में पानी, यही तो इंदौर की बात है जानी,
घूमने जाना हो तो मेट्रो-टैक्सी है, ज़्यादा गर्मी है तो मोनिका-गेलेक्सी है,
दाल-बाफले का जायका दिल खुश कर देगा, सर्दियों में गराडू बस यहीं मिलेगा,
हर खाने की लज्ज़त हो जाती है दूनी, जब मिले उसमें इन्दौरी सेंव-चटनी,
दिल से देते हैं प्यार की दावतें, इसलिए हमेशा शान से हम है कहते,
हाँ भिया अपन तो इन्दौरी हैं!
लालबाग यहाँ की पहचान है, राजबाड़ा इंदौर की जान है,
विजय-बल्ला अभिमान है, कांच मंदिर इंदौर की शान है,
गांधी हाल की घडी अगर पुराना समय दिखाती है,
टी.आई. की चमक शहर की तरक्की छलकाती है,
अहिल्या की नगरी है, म.प्र. का गौरव, रहेगा हमें हर पल इस पर गर्व,
हाँ भिया अपन तो इन्दौरी हैं!
(अज्ञात इन्दौरी की रचना, दिनेश भिया - जानकी नगर वालों ने भेजी)
Tuesday, May 19, 2009
अपनी कसम ....
बेंतिलादियों से सुबुक सब में हम हुए,
जितने जियादाह हो गए उतने ही कम हुए|
हस्ती हमारी अपनी फना पर दलील है,
यां तक मिटे के आप हम अपनी कसम हुए|
- मिर्जा गालिब
जितने जियादाह हो गए उतने ही कम हुए|
हस्ती हमारी अपनी फना पर दलील है,
यां तक मिटे के आप हम अपनी कसम हुए|
- मिर्जा गालिब
Monday, March 23, 2009
लहजा बदल के ...
अभी कुछ और करिश्मे ग़ज़ल के देखते हैं,
फ़राज़ अब ज़रा लहजा बदल के देखते हैं.
राह-ऐ-वफ़ा में हरीफ-ऐ-खिराम कोई तो हो,
सो अपने आप से आगे निकल के देखते हैं,
ये कौन लोग है मौजूद तेरी महफिल में,
जो लालचों से तुझ,मुझको जल के देखते हैं.
ना तुझको मात है ना मुझको मात है,
तो अब के दोनों ही चालें बदल के देखते हैं.
अभी तलक तो कुंदन हुए ना राख हुए,
हम अपनी आग मैं हर रोज़ जल के देखते हैं.
बहुत दिनों से नहीं है उसकी खैर खबर,
चलो फ़राज़ को ऐ यार चल के देखते हैं.
-अहमद फराज़
फ़राज़ अब ज़रा लहजा बदल के देखते हैं.
राह-ऐ-वफ़ा में हरीफ-ऐ-खिराम कोई तो हो,
सो अपने आप से आगे निकल के देखते हैं,
ये कौन लोग है मौजूद तेरी महफिल में,
जो लालचों से तुझ,मुझको जल के देखते हैं.
ना तुझको मात है ना मुझको मात है,
तो अब के दोनों ही चालें बदल के देखते हैं.
अभी तलक तो कुंदन हुए ना राख हुए,
हम अपनी आग मैं हर रोज़ जल के देखते हैं.
बहुत दिनों से नहीं है उसकी खैर खबर,
चलो फ़राज़ को ऐ यार चल के देखते हैं.
-अहमद फराज़
Monday, September 8, 2008
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