Friday, January 29, 2010

कुछ इश्क था कुछ मजबूरी थी,

कुछ इश्क था कुछ मजबूरी थी, सो मैने जीवन वार दिया,
मैं कैसा ज़िन्दा आदमी था इक शख्स ने मुझको मार दिया.
इक सब्ज़ शाख गुलाब की था इक दुनिया अपने ख्वाब की था,
वो एक बहार जो आयी नहीं उसके लिये सब कुछ हार दिया.
ये सजा सजाया घर साथी मेरी जात नही मेरा हाल नही,
ऐ काश कभी तुम जान सको जो इस सुख ने आज़ार दिया.
मैं खुली हुई इक सच्चाई मुझे जानने वाले जानते हैं,
मैने किन लोगों से नफरत की मैने किन लोगों से प्यार किया.
वो इश्क बहुत मुश्किल था मगर आसान ना था यूँ जीना भी,
उस इश्क ने जिन्दा रहने का मुझे ज़र्फ दिया पिन्दार दिया.
मैं रोता हूँ और आसमान से तारे टूटते देखता हूँ,
उन लोगों पर जिन लोगों ने मेरे लोगों को आजार दिया.
मेरे बच्चों को अल्लाह रखे इन ताज़ा हवा के झोंको ने,
मैं खुश्क पेड़ खिजां का था मुझे कैसा बर्ग-ओ-बार दिया.
- उबेदुल्लाह आलीम

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